ये कहानी एक ऐसी औरत की है, जो अपनी जिंदगी के अनकहे पन्नों को याद करती है, जब वह अपना 65वां जन्मदिन मनाती है । एक औरत की जिंदगी के उतार-चढ़ाव, लोगों की उससे अपेक्षाएं, अपनों की उम्मीदें, जिनमें वह अपने खुद के अस्तित्व को खो देती है । इन सभी हालातों में अपनी पहचान बनाने का जज्बा लाने वाली हर औरत कितनी मुश्किलों का सामना करती है, जिसका अंदाजा सिर्फ उसे ही होता है । उस डर से निकलकर कुछ करने की ठानना ही असली पहचान है । जो मेरे तजुर्बे से दुनिया की 80% औरत किसी दर्द में है पर उसे खुद पता ही नहीं कि वह दर्द है क्योंकि उन्होंने इसे अपनी तकदीर और जिम्मेदारी मान लिया है। पर अगर अपने मन में झांक कर देखेंगे तो पता चलेगा कि वो कितनी खाली है अंदर से । इस पुस्तक का सार बस इतना है …“तुम सब की कहानी, मेरी पुस्तक की जुबानी”