भैंसा कुंड एक ऐसे परिवार की मार्मिक और काल्पनिक कहानी है जो संघर्षों, उपेक्षा और सामाजिक अन्याय के बीच भी अपनी अस्मिता और मानवता को बनाए रखता है। यह कथा नवऱतन और उसकी पत्नी आशा की है, जो जयपुर से अपने नौ बच्चों को लेकर बेहतर जीवन की उम्मीद में लखनऊ आते हैं। न उनके पास धन है, न आश्रय—सिर्फ़ हौसला, एकता और जीने की जिद। ठिठुरती सर्दी, भूख, बेघरपन और सौतेले रिश्तों की क्रूरता के बीच यह परिवार हर दिन एक नई लड़ाई लड़ता है। जब आशा पर शारीरिक हमले की कोशिश होती है, तब उसका आत्म-सम्मान, एक औरत की गरिमा और माँ की मजबूरी—सब एक साथ पाठकों को झकझोर देती है। लेकिन इसी अंधेरे में एक किरन की तरह आती है ननद भूरी, जो आशा को वह समर्थन देती है जो उसे अपनों से नहीं मिला। भैंसा कुंड सिर्फ़ एक परिवार की कहानी नहीं, यह हमारे समाज के उन अनदेखे कोनों की गूंज है जहां आज भी इंसानियत गरीबी, लाचारी और पितृसत्ता के नीचे दबकर साँस ले रही है। यह उपन्यास संवेदना से भरपूर, यथार्थ से जुड़ा और सामाजिक चेतना को झकझोरने वाला दस्तावेज़ है।