स्वदर्शन क्रिया स्वयं की आंखों से स्वयं को देखने की कला है। जो व्यक्ति कभी ध्यान में नहीं उतरा उसके लिए ठीक से अपना चेहरा देख पाना भी असंभव है। इसे ठीक से समझ लें नहीं तो सदियों-सदियों तक गलतफहमी के शिकार बने रहेंगे। आपने खाने वाली चीनी देखी होगी। वह कितनी सुंदर होती है - उजली-उजली, गोरी-गोरी। मगर उसमें पानी डालकर जैसे ही आग पर चढ़ाते हैं वैसे ही उसका असली चेहरा दिखाई देने लगता है। चीनी जब टूटती है तो उसमें से इतना काला-काला निकलने लगता है कि आपको उसे देखकर घीन-सी आने लगती है। फिर आपको उसे खाने का दिल नहीं करता है। चीनी की तरह ही मनुष्य भी ऊपर-ऊपर से कितना खूबसूरत होता है! मिथ्या दृष्टि से ग्रसित मनुष्य संसार की आंखों से अपने को और सबको देखता है तो उसे सबकुछ सुंदर-सुंदर दिखाई देता है। मगर जब वही मनुष्य स्वदर्शन क्रिया करने के लिए ध्यान में बैठता है तो उसके अंदर का सारा कचरा निकलकर बाहर आने लगता है। ऐसा जान पड़ता है मानों वह मनुष्य नहीं, बल्कि कचरा घर हो। स्वदर्शन क्रिया न सिर्फ कचरा देखना सिखाती है, बल्कि चुन-चुन करके सारे कचरे को साफ करना भी सिखाती है - चाहे वह राग का कचरा हो या द्वेष का कचरा हो या मोह का कचरा हो।